विज्ञापनों की भाषा बदल रही है - रेशु सोनी


वेब वार्ता (न्यूज़ एजेंसी) अजय कुमार वर्मा
 इंदौर 24 अक्टूबर। आज की दुनिया विज्ञापन के लुभावने मायाजाल में रची-बसी है। इसकी भाषा और तरीके पहले साधारण होते थे। मकसद होता था व्यापार करते हुए भी ग्राहक की भावनाओं को बनाए रखना। अखबार, मैगजीन्स तक सिमटे विज्ञापन अब टीवी के माध्यम से घर-घर पहुंच रहे हैं। तेल-साबुन से लेकर जीवन साथी के चयन की उपलब्धता भी विज्ञापन द्वारा सहज रूप से की जा सकती है। संचार का यह उन्नत माध्यम अब ऊल-जलूल तरीके से हर चीज को चमकदार बनाकर परोस रहा है। ग्राहक परेशान कि क्या खरीदूं, क्या छोड़ दूं। इनसे आंख, कान और मस्तिष्क तो प्रभावित होते ही हैं, व्यापक असर जेब पर पड़ता है।
      इन विज्ञापनों में उपभोक्ता का भरोसा जीतने के लिए लोकप्रिय चेहरों का सहारा लिया जाता है। जब हमारे चहेते नायक-नायिका उसे बेच रहे हों, तो उसकी विश्वसनीयता पर कौन शक करेगा? रोज इस्तेमाल होने वाली छोटी जरूरत की चीज भी विज्ञापन देखकर घर में आती है। दर्शकों की नब्ज पहचानती विज्ञापन एजेंसियां तीज-त्योहार और मौसम के मुताबिक भावनात्मक विज्ञापन बनाती हैं। राखी के अवसर पर चॉकलेट के इतने विज्ञापन दिखाए जाते हैं कि बहनें परंपरागत मिठाई के बजाय भाइयों को चॉकलेट के डब्बे पकड़ा देती हैं। एक तिलिस्मी दुनिया ने हर आयु वर्ग को सामाजिक स्तर पर जकड़ एक उद्योग खड़ा कर दिया है। चर्चिल ने कहा था, टकसाल के अतिरिक्त कोई भी बिना विज्ञापन के मुद्रा का उत्पादन नहीं कर सकता। सौदा बेचना क्रांति का रूप ले चुका है। विज्ञापन की भाषा रातोंरात बदल गई।
       विज्ञापन कथानक के साथ बनने लगे। याद करें, सदी की शुरुआत में टीवी की रोशन खिड़की पर उदित हुआ कार का वह विज्ञापन, जिसमें पुत्र को नई कार में स्कूल से घर ले जाते वक्त पिता पूछता है, डिड यू गेट योर रिपोर्ट कार्ड? कुछ बोले बगैर बेटा कार में बैठ जाता है। कार की गति से पिता-पुत्र रोमांचित हो जाते हैं। पिता दोबारा पूछते हैं, डिड यू गेट योर रिपोर्ट कार्ड? साहबजादे के यस कहते ही कार का गियर बदल जाता है, वह स्पीड ले लेती है। इंटेलिजेंट पुत्र भांप जाता है, पिता को कार चलाने में अतिरिक्त आनंद आ रहा है। पिता जी हर विषय के नंबर की जानकारी लेने के बाद कार की स्टेयरिंग घुमाने के साथ ही पूछते हैं, हाउ मच इन मैथ्स? स्टेयरिंग के घुमाव के कारण पिता जी मार्क्स सुन नहीं पाते। ब्रेक लगा फिर पूछते हैं, गणित में कितने? जीवन की भौतिक सुविधाओं के गणित समझ लेने वाला चिरंजीव कार के प्रति पिता के लगाव को भांप  लेता है। बजाय इसके कि वह अपने अंक बताए, वह प्रतिप्रश्न करता है, डैड, कैन वी गो फॉर ड्राइव अगेन? कार की स्पीड महत्ता के साथ नेपथ्य में चला जाता है रिपोर्ट कार्ड। यह विज्ञापन किस मनोविज्ञान का परिचायक था, यह अलग विषय है।
    तमाम आलोचनाओं के होते हुए भी विज्ञापन हमारे जीवन स्तर को बेहतर करने और उत्पादन बढाने का प्रभावी माध्यम हैं। 'ठंडा मतलब कोका कोला', 'कुछ मीठा हो जाए', 'पहले इस्तेमाल करें-फिर विश्वास करें' या फिर अमूल के जन चेतना वाले शब्द योजना और शब्द कौतुकम के विज्ञापन।
         विज्ञापन आज हमें डरा रहा है, सीधे डराया जा रहा है। जब एक चर्चित अभिनेता यमराज के वेश में जीवन बीमा और स्वास्थ्य की पैरवी करेंगे, तो पॉलिसी कौन नहीं लेगा? परोक्ष में आप सिधारो, तो हम पधारें। 'योगक्षेम वहाम्यहम' का संदेश देती बीमा कंपनी आज भी शालीन भाषा में ‘जीवन के साथ भी जीवन के बाद भी’ का विनय भाव सहेजे है। जिस विज्ञापन का उद्देश्य व्यापार करते हुए समाज की भावनाओं और समरसता को बनाए रखना होना चाहिए, वह अपना मकसद भूल पैसा कमाने और उपभोक्ता से पैसा निकलवाने का जरिया बन रहा है। एक बैंक ने होम लोन की अनुशंसा में बड़े रोचक अंदाज में अविवाहित बेटे को उसकी मां से दूर रहने के लिए सुझाया था।
        पिछले कुछ महीनों से इसकी भाषा हमें डरा रही है। इम्युनिटी, वायरस और जर्म्स जैसे शब्दों का डर बताकर विज्ञापन बन रहे हैं। अचानक हर घी, तेल में प्रतिरोधक क्षमता के तत्व आ गए। तेल, मंजन, शैंपू, सभी में इलायची, नींबू, हल्दी, एलोवेरा और न जाने क्या-क्या। विज्ञापन के, जिसका शाब्दिक अर्थ विशिष्ट ज्ञापन अर्थात सूचना होता है, स्वरूप और भाषा का अशिष्ट होना शुभ नहीं।