फिल्‍म देखने से पहले जानें कैसी है 'सोन चिड़िया'

70 और 80 के दशक में डाकू फिल्मों की कहानियों का अहम हिस्सा होते थे लेकिन पिछले डेढ़ दशक में डाकू फ़िल्म की कहानी से पूरी तरह से बिसरा दिए गए. अभिषेक चौबे की सोन चिड़िया चंबल के डाकुओं की कहानी है हालांकि हिंदी सिनेमा के मुख्यधारा वाले डकैतों से चंबल के ये बागी बिल्कुल अलग है. ये घोड़े पर नहीं आते हैं ना ही इन्हें मुजरा या आइटम डांस देखने का शौक है. ये चंबल के बीहड़ों में रहते हैं. जो एक सूखी रोटी पर पूरा दिन गुज़ार देते हैं. पुलिस से खुद को बचाने के लिए जो पैदल मीलों तक चलते हैं. फिक्शन का दावा यह फ़िल्म भले ही करती हो लेकिन फ़िल्म का हर फ्रेम हकीकत से लबरेज है. अभिषेक चौबे की फ़िल्म सोन चिड़िया कहानी मान सिंह (मनोज बाजपेयी) के गैंग की है जो ठाकुरों का गैंग हैं एक गुज्जर पुलिस ऑफिसर (आशुतोष राणा)को इस गैंग से बदला लेना है. वो बदला क्या है उसके लिए आपको फ़िल्म देखनी होगी.  फ़िल्म सिर्फ बदले की कहानी भर नहीं है. जातिभेद, समाज में महिलाओं की स्थिति ,पुरुषसत्ता और पश्चताप ये भी फ़िल्म के अहम बिंदु हैं. फ़िल्म बदला और न्याय के अंतर को बताती है. फ़िल्म प्रकृति के नियम का भी गुणगान करती है. मारनेवाले भी नहीं बच पाएगा जिस तरह चूहा को सांप खाता है और साँप को गिद्ध मारता है. फ़िल्म का ट्रीटमेंट बहुत खास है जो फ़िल्म को पहले सीन से आखिरी सीन तक जोड़े रखता है. फ़िल्म में फूलन देवी का किरदार भी है लेकिन उस पर थोड़ा और मेहनत करना चाहिए था. अभिनय की बात करें तो सुशांत सिंह राजपूत ने अपनी भूमिका को पूरे दमखम से निभाया है. उनकी जितनी तारीफ की जाए कम हो. मनोज बाजपेयी का रोल छोटा भले ही है लेकिन उसका प्रभाव छोटा नहीं है. रणवीर शौरी और भूमि ने अपने किरदार के साथ बखूबी न्याय किया है. आशुतोष राणा भी जमे हैं. कुलमिलाकर फ़िल्म की पूरी कास्ट बेहतरीन रही है. फ़िल्म का संवाद बुंदेलखंडी भाषा से प्रभावित है. शहरी लोगों को ये भाषा थोड़ी अटपटी लग सकती है लेकिन फ़िल्म की कहानी के साथ ये न्याय करती है. गीत संगीत भी फ़िल्म का वैसा है. फ़िल्म का कैमरा वर्क कमाल का है. कुलमिलाकर अगर आप रियलिस्टिक फिल्मों के शौकीन हैं तो सोन चिड़िया आपके लिए है.