हिन्दी संस्थान द्वारा ‘हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाएं: अन्तर्सम्बन्ध’ विषय पर संगोष्ठी आयोजित 

वेबवार्ता (न्यूज़ एजेंसी)/अजय कुमार वर्मा 
लखनऊ 14 सितम्बर। आज हिन्दी दिवस 14 सितम्बर को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाएं: अन्तर्सम्बन्ध’ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी की अध्यक्षता डाॅ. सदानन्दप्रसाद गुप्त, कार्यकारी अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान की अध्यक्षता में संगोष्ठी का आयोजन गूगल मीट के माध्यम से किया गया।
     अभ्यागतों का श्रीकांत मिश्रा, निदेशक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने करते हुए कहा - हिन्दी भाषा और साहित्य के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के उन्नयन की दिशा में समर्पित उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा डाॅ0 सदानन्दप्रसाद गुप्त, कार्यकारी अध्यक्ष की अध्यक्षता में आनलाइन आयेाजित इस संगोष्ठी में आप सबका स्वागत करते हुए हिन्दी संस्थान परिवार हर्ष का अनुभव कर रहा है। कोविड-19 महामारी के प्रकोप से भारत सहित पूरा विश्व त्रास्त है। ऐसी स्थिति में कोरोना महामारी से बचाव के सार्थक उपाय करते हुए हमने आप सबसे जुड़ने का सुरक्षित माध्यम चुना है। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाएं अन्तर्सम्बन्ध विषय पर आयेाजित इस संगोष्ठी से हम सभी लाभान्वित होंगे। उन्होंने सम्मानीय अतिथि के रूप में पधारे डाॅ0 बलवंत भाई जानी, पूर्व कुलपति, श्रीहरि सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर व डाॅ0 सुरेन्द्र दुबे, कुलपति, सिद्धार्थ विश्वविद्यालय, कपिलवस्तु का आभार व्यक्त किया। विद्वान वक्ताओं के सानिध्य में हम सदैव ही कुछ न कुछ नया सीखते हैं और नया करने के प्रति उत्साहित होते हैं। साथ ही प्रेरणा ग्रहण कर कृत संकल्पित भी होते हैं। हमारे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान समूह से जुड़े सभी सहयोगियों का भी स्वागत और अभिनन्दन है। एक फिर हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं इस सार्थक संगोष्ठी में आप सबका स्वागत है।
इस अवसर पर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से प्रकाशित तीन पुस्तकों - ‘नाथपंथ: साधना और साहित्य’, ‘पं. विद्यानिवास मिश्र: परम्परा, लोक एवं संस्कृति’ तथा ‘भगवती प्रसाद सिंह: जीवन और साहित्य’ का लोकार्पण किया गया।
     मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित डाॅ. सुरेन्द्र दुबे ने कहा - हिन्दी भाषा के विकास में साधुसंतों का विशेष योगदान रहा फिर चाहे वे उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम कहीं के हो। हिन्दी को समझने में कहीं कोई कठिनाई नहीं होती थी। आजादी की लड़ाई हिन्दी को आधार बनाकर लड़ी गयी। स्वामी दयानन्द सरस्वती आर्य समाजी थे संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित थे। उन्होंने अपना गं्रथ हिन्दी में लिखा क्योंकि वे हिन्दी को देश भाषा मानते थे। पूरे भारत में जो एकरूपता दिखायी देती है, उसमें हिन्दी की समझ और विस्तार है। हमारा राष्ट्र संस्कृति से बना भाषा से नहीं क्योंकि यहाँ अनेक भाषाएं हैं। संस्कृत का प्रवाह उत्तर से दक्षिण तक एक सा था। सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी कहीं कहीं थी।
      डाॅ. बलवंतभाई जानी, कुलाधिपति, श्रीहरि सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर ने कहा - भाषा से आदमी छूट नहीं सकता। उसे कोई छुड़ा नहीं सकता। भारत से कटे हुए लोग भी भारतीय भाषाओं विशेषकर हिन्दी से जुड़े हैं। भाषा की यात्रा बहुत लम्बी है। भाषा का अन्तर्सम्बन्ध जनसम्पर्क की जन मीरा जो कहती है वह मराठी, कश्मीरी, गुजराती आदि भाषा की कविताआंे में सुनायी देता है। भाषा का कुल क्रम बदला नहीं है वह सबको प्रभावित करता है। प्राकृत अनुप्राणित भारतीय भाषाएँ अन्तर्सम्बन्ध का आधार हैं। समाज में समरसता, सहभागिता, समरोपता भाषाओं के माध्यम से दिखायी देती हैं। कोई भी भाषा अपरिचित नहीं है। किसी भी भाषा को परिचित बनाने का कार्य हमें करना होगा, तभी हम उच्चतम स्तर तक पहुँच सकते हैं।
      अध्यक्षीय सम्बोधन में डाॅ. सदानन्द प्रसाद गुप्त, मा. कार्यकारी अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने कहा - हिन्दी के खड़ी बोली के पुरोधा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल तथा स्तव्य जिन भारत गहे को मूलमंत्रा दिया। आज हम हिन्दी के राजमार्ग पर चल रहे हैं। भारतेंदु जी ने कंटकदीर्ण मार्ग दो साफ किया और भारतीय जनताम में भाषा के माध्यम से बलिदानी चेतना का निर्माण किया। भाषायी स्वतंत्राता जो हमें मिलनी चाहिए वह दुर्भाग्य से हमें मिल नहीं पायी है। अंगे्रजी उसका पीछा नहीं छोड़ रही है। हिन्दी दिवस के अवसर पर हम यह संकल्प करें कि विभाजन की नीति का विरोध करें और अपनी भाषा के साथ सम्मान से खड़े रहें। मनुष्यता के विकास में भाषा की बड़ी भूमिका है। हमारी स्मृति को जीवंत बनाने में संस्कृत भाषा की बहुत बड़ी भूमिका है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम भारतीय भाषाओं के अन्तर्सम्बन्ध पर गम्भीरता से चिन्तन-मनन करना होगा। हिन्दी के अतिरिक्त भारत में अनेक भाषाएं जैसे- लद्दाखी, कश्मीरी, कोंकणी, गुजराती, मराठी, बांग्ला आदि जिनका अपना गौरवशाली इतिहास है। प्राचीन भारतीय साहित्य का उपजीव्य जिन्हें कहा जाता है, उन्होंने साहित्य में एकता अखण्डता को स्थापित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। भारत वर्ष में लोक साहित्य की परम्परा भी अत्यंत प्राचीन है। भारतीय भाषाओं में एकता के सूत्रा विद्यमान है। हमंे उन सूत्रों को खोजकर एक दूसरे के साथ जुड़ना है। सभी भाषाएं राष्ट्रभाषाएं हैं हिन्दी सभी भाषाओं के बीच सम्पर्क स्थापित कर सकती है।      
    संगोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में डाॅ. सुरेन्द्र दुबे, कुलपति, सिद्धार्थ विश्वविद्यालय, कपिलवस्तु एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में डाॅ. बलवंतभाई जानी, पूर्व कुलपति, श्रीहरि सिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर उपस्थित रहे।- निधि वर्मा